*बेगानी शादी में अब्दुल्लाह दीवाना*
हम देख रहे हैं कि जब से बीजेपी सत्ता में आई है, सुनियोजित ढंग से देश का भगवाकरण किया जा रहा है। ज़हनसाज़ी की जा रही है। लेकिन उनके इस राजनीतिक हिंदुत्व से अगर हिंदू मुतास्सिर होते हैं तो समझ में आता है मगर बोहरा क़ौम का उत्साह समझ में नहीं आता। कोई प्रभातफेरी के स्वागत में कतारबद्ध खड़ा है तो कोई 'जय श्रीराम' के उद्घोष में पेशपेश है। कोई रामराज्य के समर्थन में लेख लिख रहा है तो कोई राम के गुणगान में क़लम चला रहा है। (रामराज्य के बारे में ओशो के क्या विचार हैं, आप यूट्यूब पर सुन सकते हैं जबकि लाखों हिंदू ओशो के अनुयायी हैं) बहरहाल मंदिर निर्माण से या मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा से हमारा क्या लेना-देना? उनका धर्म, उनकी आस्था, उनका आयोजन।
क्या प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस जुनून का हिस्सा बनना और उनकी ख़ुशी में शामिल होना, बुतपरस्ती के नए केंद्र का और अल्लाह के घर को ज़ालिमाना तरीक़े से शहीद करने का खुला समर्थन नहीं है? वक़्त और हालात के मद्देनज़र हमें इतनी अहतियात ज़रूर बरतना चाहिए कि हम ख़ामोशी अख़्तियार करें और किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने से बचें। कुराने करीम में भी कहा गया है कि दूसरों के माबूदों को बुरा भला न कहो। (क़ुरआन 6:108) लेकिन उनको ख़ुश करने के लिए उनके मुशरिकाना आयोजनों में शिरकत करना क़तअन ग़ैर मुनासिब है।
हम को ये तय करना पड़ेगा कि हम बुत शिकन (बुत तोड़ने वाले) हुज़ूर (स.) और मौला अली (अ.) के शैदाई हैं या बुतों की स्थापना करने वालों के? ये कैसे मुमकिन है कि बयक वक़्त एक दिल में कुफ़्र और ईमान एक साथ रहें? कितनी हैरत की बात है कि आए दिन जैन मुनियों के पीछे भागते हुए....साधु-संतों के पैर छूते हुए....मंदिर में बुतों के सामने हाथ जोड़ते हुए और उनके माबूदों की जय जयकार करते हुए क़ौमी लिबास में बोहरा हज़रात की तस्वीरें और वीडियोज़ सामने आते रहते हैं मगर कोई रोकने वाला नहीं। छोटी छोटी चीज़ों पर ताकीद और सख़्तियां करने वाले दीन के ज़िम्मेदारान का तमाशाई बने रहना, इन ग़लत कामों का ख़ामोश समर्थन नहीं है? लोगों का ईमान ख़तरे में हो और किसी को भी फ़िक्र न हो तो ये कितनी अफ़सोसनाक बात है।
सदियों पहले कभी अल्लाह के नेक बंदों ने हमारे पुरखों को दीन की दावत दे कर ब्राह्मण से मोमिन बनाया था और आज हुक्मरानों को ख़ुश करने की कोशिश, इसी मोमिन को ब्राह्मण बनाने के रविश पर ले जा रही है। इक़बाल ने कहा था कि....
मिसले अंजुम उफ़क़े क़ौम पे रौशन भी हुए//
बुत-ए-हिंदी के मुहब्बत में बरहमन भी हुए//
कौन है तारिक-ए-आईने-ए- रसूल-ए-मुख़्तार//
मसलेहत वक़्त की है किस के अमल का मैयार//
किस की ऑंखों में समाया है शआर-ए-अग़्यार//
हो गई किस की नज़र तरज़े सलफ़ से बेज़ार//
राजनीति से शराबोर धार्मिक आयोजनों में किसी भी स्तर की हिस्सेदारी से पहले हमें ये सोचना चाहिए कि किस तरह सत्ता का दुरुपयोग कर के अन्यायपूर्ण ढंग से मंदिर के पक्ष में फ़ैसला करवाया गया है। ये ख़ून से लथपथ नाइंसाफ़ी और ज़ुल्म की ऐसी कहानी है जिसे इतिहास हमेशा याद रखेगा। ज़रा सोचिए कि हज़रते हुसैन (अ.) की मज़लूमियत का ग़म मनाने वाला ज़ालिम की हिमायत में कैसे खड़ा हो सकता है, जबकि वो ज़ालिम इस्लाम का घोषित दुश्मन भी हो।
~Safdar Shamee