बिस्मिल्लाह हिर रहमान निर रहीम
(ए रसूल ओर) कहो कि ह्क़ (सच) आया और बातिल (झूठ) मिट गया, बेशक बातिल मिट हि जाने वाला था। - अल क़ुरान - बनि इस्राइल्
किताब का नाम: खमाइलुर रातेईन
लेखक: शेख अल मुक्कद्दस चाँद खान जी रामपुरा वाला
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बिस्मिल्लह हिर रह्मान निर रहीम
अल्हम्दो लिल्लह वस्सलामो अले आब्देहिल्लज़िन अस्तफ़ा, आल्ललाहो खेरुन अम्मा युश्रेकून।
इस किताब के मुस्सन्निफ़ (लेखक) अल शेख अल फ़ाज़िल चान्द खान जी रामपूरा वाले कदीम ह्क़ परस्त उल्माए किराम मे से एक थे। और अब्दुल कादिर नज्मुद्दिन साह्ब का इन्तिखाब करने वाले चार उल्मा के एक अश्शेख अल फ़ाज़िल वलि मोहम्मद साह्ब के बेटे अश्शेख अल फ़ाज़िल ह्मीद्दुदीन जनाब के शागिर्द रशीद थे। नजमी खानदान के मेहरम्-राज थे। उन्होने नजमी सरदारो को देखा परखा और उन से जो कुछ सुना उसको इस किताब मे जमा किया।
मोह्म्म्द (स) और आले मोहम्म्द अलय्हिस्सलाम के वसीले से यह दुआ हे कि अल्लाह सुबहान्न्हू इस नेक काम को नेक अनजाम तक पहुँचाए। आमीन। वलहम्दो लिल्लहे रब्बिल आलमीन।
इस रिसाला का नाम है "खमाईल रातेईन फ़ि शमाइलद दआते अल बारीन व शमाइले बआजि हुदुदे फ़ेमिश शर्रीन" (यानी दुआत और उनके हुदुद के सीरत की सैर कि तफ़री करने वालों के बाग बागीचे।
इस रिसाला मे सात खमाइल (बाग) है और हर खमाइल मे कितनेक मनाहिल (चश्मे फ़ऊँटेन) हैं। क्योंकि उन मे जो कुछ लिखा है वह असहाब मारिफ़्त के दिलों के क्यारिंयां हैं और हर क्यारियां मे कितनेक चश्मे हैं अह्ले बसीरत के जानो के लिये।
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मनाहिल अव्वल (1st)
तौफ़ीके खुदा से कह्ता हूँ कि इन सतूर मे मैनें जो कुछ लिखा है वह लोजे अल्लहा लिखा है ताकि हामेशा के लिये बाकि रहे और मेरे मौमिन भाइयों कि तरफ़ यह हदिया है। अहले बसिरत के लिये तब्सीर है तजकिराह है। यकिनन जान लेना चाहिये कि यह अनकत्ल और बला ह्मारे हि गुणाहों के बाईस है।
हकिक्त मे मैं खुद गुणहगार हूँ तो अब मैं मलामत करूँ? मैनें हि खुद पर जुल्म किया - जालिम भी मैं और मजलूम भी मैं। लिहाजा हम अपनी जानो की मलामत करें अल्लाह सुबहान्हु तो आदिल है अल्लाह ने अपने अदल से हि हम को इस इन्क्ताअ के खड्डे में ढकेला। हर शख्स अपने किये का जिम्मेदार है। अल्ब्त्ता हम ह्बलुल्लाह-अल्-मतीन (अल्लाह कि मज़बूत रस्सि) को पकडे हुए हैं
बाद रसूल (स.) हम अली (अ.), इमाम हसन (अ.), इमाम हुसैन (अ.) २१वें इमाम मौलाना इमाम तय्यब (अ.) तक आइम्मा हक और मौलाना जौएब से मौलाना तय्यब ज़ेनुद्दीन तक दुवाते हक से वाबिस्ता है फिर मौलान जैनुद्दीन ने मौलाना मोहम्मद बदरुद्दीन पर नस-ए-जली फ़रमाई। आप मनसूस अलैह दाई हक थे, हम इन दुवाते हक से वबिस्ता है। हम अल्लाह सुबहान्हु कि सुन्न्त से हटे नहीं। अब अल्लाह सुबहअन्हु कादिर मुतलक है वह जो चाहे करे और जो चाहे हुकुम दे वह सीनों की बातों को खूब जानता है।
मनाहिल सानी (2nd) -
दुवात उल सत्र दुवातुल मुतलकून उल्माए हिक्मा मुह्क्केकून (क.स.) ने आइम्मा तहेरीन की जगह इमाम तय्यब (स.) की गयबत के बाद दीने हक की हिफ़ाज़त का बेडा उठाया उन मे यमानी दुवात उल्माए मुखारीर फ़ुज़ला ए मशाहिर थे। इल्मुल हकाइक मे आला किताबें तस्नीफ़ की। मौलान ज़ौइब से मौलाना मोहम्म्द एज्जुद्दीन (२३ वें दाई) तक जो यमन के आखिरी दाई है, फिर दुआतुल हक कि बरकतें हिन्द की तरफ़ आई।
अव्वलन अह्मदाबादि दुआत फ़िर नगरी दुआत कायम हुए। सूरज के बाद चाँद जिस तरह तुलु होता है उसी तरह यमानी दुआत के बाद हिन्दी दुआत का तुलु हुआ। इल्म वा हिक्मत के नश्रो इशाअत (पब्लिश) के बाद रियाज़त व इबादत कि नेअमतौं से अरबाब अल दुआत मख्तूज़ हुए।
हत्ता कि मौलाना अब्देअली सैफ़ुद्दीन (क.स.) काइम हुए, आप वजूद मे आखिर थे मगर फ़जाइल फ़वाज़िल मे अव्व्ल थे। आपने अपने खानदान मे नज़र की मगर कोइ ऐसा नज़र न आया कि उसको दाई बनाऐ तो फिर आप इन्तहाई ज़ुस्तज़ु के बाद मौलाना मोह्म्मद एज़्ज़ुद्दीन बिन सय्यदि जीवनजी को बेह्तरीन तालीमो तर्बियत के बाद दाई बनाया। आप ने मौलान अब्देअली सैफ़ुद्दीन के मनवाल पर ही दुआत अल हक का नसज़ किया - नज़म व नसक सम्भाला और आपने अपने बडे भाई मौलाना तैय्यब ज़ैनुद्दीन पर नस-ए-ज़ली फ़रमाई।
मनाहिल सालिस (तीसरी / 3rd) -
मौलाना एज़ुद्दीन (क.स.) के बाद मौलाना ज़ैनुद्दीन (क.स.) दुवात के उमूर को बेहतर तरीक से ले उठे। आपके अहद मे मंदसौर मे जबरदस्त फ़ित्नत हुई। खानगी हालात-महालात भी आते रहे, इस हालत मे आपने शेख अब्दुल अली बिन शेख अब्दुल कादिर पर नस कर दी। फ़िर सुकून मिला।
मनाहिल राबेआ (४ चौथा) -
कहा जाता है कि शेख अब्दे अली बिन शेख जीवाजी भाई इमादुद्दीन ने आप को मशवरा दिया कि आपके बेटे अब्दुल कादिर नज़्मुद्दीन पर नस करे इस से इमादुद्दीन का मकसद यह था कि मौलाना मोहम्मद बदरुद्दीन से नस हटा दें लेकिन मौलाना ज़ैनुद्दीन ने उन की बात नहीं मानी। यह भी कहा जाता है कि मौलाना अब्देअली सैफ़ुद्दीन का अव्वलन इरादा था कि ज़ैनुद्दीन साहब पर नस करे फिर हालात ऐसे सामने आऐ कि आप ने बजाए ज़ैनुद्दीन साहब, एज़ुद्दीन साहब पर नस फ़रमाई और वसियत फ़रमाई कि अपने भाई ज़ैनुद्दीन साहब को मुकासिर के मर्तबे मे काइम करे। (यह है रावी के कौल कि फ़्हवि)
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मनाहिल अव्वल -
जब मौलाना ज़ैनुद्दीन ने मौलाना बदरुद्दीन पर नस फ़रमाई तब अब्दुल कादिर नज्मुद्दीन आप के ऊपर अपनी बढाई बताने लगे ज़िद्दे-अकबर कि तरह आप पर तक्कब्बुर करने लगे और हर वक्त आप को गिराने कि, सताने कि फ़िराक मे लगे रहते। जासूसों के ज़रिये आपकि खबर निकालते रहते। आपकि तहकीर व तौहीन करते। आप मौलाना बदरुद्दीन हुसामुद्दीन को बहुत चाहते थे बेटा-बेटा कह कर बुलाते थे लेकिन हुसामुद्दीन नज़्मुद्दीन के जासूस थे रोज़ाना आप के हालत कि रिपोर्ट नज़्मुद्दीन को पहुँचाते थे।
मौलाना बदरुद्दीन नज़्मुद्दीन के बहनोई थे। जब आप कि बिवि साहिबा अमातुल्लाह बिन्ते ज़ैनुलआबेदीन साहब कि वफ़ात हुई तो रत्न आई बिन्ते मुल्ला सालेह मोहम्मद सेरवन्ज़ि और खदीज़ा बिन्ते मुल्ला कमरुद्दीन पाथरया (सूरत) से निकाह किया। अफ़सोस कि नज़्मुद्दीन अपने बहनोई मौलाना बदरुद्दीन की हनक करने मे लगे रहते, आप के सर पर हाथ मारते और गालियां देते। मगर आप गिर्रे-करीम बावकार हलीम थे बरदाशत करते।
शेख अब्देअली इमादुद्दीन भी नज़्मुद्दीन की बढाई कर के मौलाना बदरुद्दीन को चिढाते। ऐसी हरकत से एक रोज़ मौलाना बदरुद्दीन ज़ारो-कतार रोए हत्ता कि आपके रेशे मुबारक तर हो गये। नज़्मुद्दीन बार बार अपने वालिद साहब के पास मौलाना बदरुद्दीन कि बेज़ा शिकायत करते ताकि आप उन कि तरफ़ से नस को हटा दें बल्कि नज़्मुद्दीन [^1] इतनि हद तक कह देते कि मेरे वालिद साहब ने बदरुद्दीन पर कब नस की? और अगर कि भी हो तो खता कि (नज़्मुद्दीन के मुँह मे खाक) चाँद (बद्र) पर खाक उडाने वाले के मुँह पर हि उसकी खाक गिरेगी। मौलाना बदरुद्दीन ने अपने अहद में किसी को बढाया य घटाया नहीं। किसी एक को भी हद्दीयत (शेखपना) बख्शा नहीं।
[^1] - बुज़ुर्गाने दीन कहते थे कि नज़्मुद्दीन ने बदरुद्दीन कि नस का इंकार किया तो नतिज़अ वह खुद ही मौलाना बदरुद्दीन कि नस से महरुम रहे।
मनाहिल सानी -
शेख ईसा भाई ने बाज़ फ़ितनती अशखास को बदरी महल से हटाया वह थे कालेखान, खानअली और सुलैमान गरगर, वगैरह।
मौलाना बदरूद्दीन ने ज़हर से शहादत पाई। नज़्मुद्दीन भी आपको ज़हर पहुँचाने वालों मे से एक थे। अल्लाह सुबहान्हु आपकि रुह मुबारक को मुक्कद्दस करे। आप दुनिया से मासूमन मज़लूमन सिधारे (आह सद आह)। मौलाना बदरुद्दीन और नज़्मुद्दीन अलग अलग पालखी मे दुम्स गये तो नज़्मुद्दीन ने उनकी पालखी उठाने वालों को जोश दिलाते हुए कहा कि बदरुद्दीन से आगे हो जाओ गरज़ कि बदरुद्दीन आका को ठेस लगे। फ़िर वह दुम्स से सुबह कि नमाज़ के लिये सूरत आ जाते बाद्ज़ नमाज़ इमादुद्दीन साहब के पास सबक पढने को जाते इससे उनकी गरज़ यह थी कि लोगों को बताएं कि देखो मे नमाज़ और सबक का कितना पाबदं हूँ और बदरुद्दीन नहीं है। इस तरह मौलाना बदरुद्दीन को हर वक्त ज़क पहुँचाते रहते। (इन हरकतों का नतिज़ा यह हुआ कि वह नस से महरुम रहे)
मनाहिल ३ (तीन)
मौलाना बदरुद्दीन कि शहादत से तीन रोज़ पहले (बाज़ रिवायत मे है कि एक दिन पहले) शेख अब्दुल अली (छोटे) अपने भाई शेख अब्दुल्लाह के साथ (जो मौलाना बदरुद्दीन के मखसुसीन मे से थे) आपकी खिदमत मे हाजिर हुए आपके पैर दबाते हुए अर्ज़ की कि या मौलाना तीन (३) मुतालबा ले कर हाज़िर हुआ हूँ इज़ाज़्त हो तो पेश करुं?
आपने फ़रमाया बताओ क्या है? अर्ज़ की कि आपकी तबिय्त नासाज़ है अल्लाह शिफ़ा बख्शे, मेरी अर्ज़ यह है कि आप अपने वालिद माजिद कि हवेली मे चले जाए। आप ने फ़रमाया अच्छि बात है कल चला जाऊँगा। दूसरी अर्ज यह है कि आपने इरादा किया है कि फ़्लां-फ़्लां को हदिया इनायत फ़रमाएंगे यह नफ़सानी क़ुर्बानि है लिहाज़ा आप अपने इरादा के मुताबिक अमल करे ताकि यह आपकी कुर्बानि आपकी शिफ़ा का सबब बन जाऐ। आपने फ़रमाया हुब्बन व करामत्न पहली रज़ब करीब है उस दिन ऐसा करुंगा इन्शाल्लाहोताअला। तीसरी अर्ज़ यह है कि अल्लाह आपकी उम्र दराज़ करे आपका काइम मकाम कौन है उन का नाम ज़ाहिर कर दिजीए यह अमानतुल्लाह अदा किजीए। आप ने फ़र्माया अल्लाह मुझे शिफ़ा दे इनशाल्लाह पहली रज़ब को इस का इज़हार करुंगा।
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मनाहिल 1st (एक) -
नज़्मुद्दीन हमेशा मौलाना बदरुद्दीन का तज़स्सो करते रहते जब मज़्क़ूर दोनो शेख मौलाना के यहां गए तब नज़्मुद्दीन ने शेख अब्दुल्लाह से पुछा कि मौलाना ने आप दोनो भाईयों को क्या कहा? शेख अब्दुल्लाह ने जो बातें हुई थी और मौलाना ने क्या जवाब दिया था वह बराबर बता दिया। अब जब मौलाना के वफ़ात का वक्त करीब हुआ तो सुलेमान गरगर बुलाया गया ताकि कुछ ऐसी बातें करे कि जिससे आप के दर्दो अलम मे तखफ़ीफ़ हो। चंद घंटो के बाद आप वफ़ात पा गए और आप ने कुछ नहीं फ़रमाया (क़दसल्लाहो रुहू)।
खादिम पुकारा कि "सय्यदना वफ़ात पा गए" (फ़ज्र कि नमाज़ के पह्ले यह अज़ीम हादसा हुआ)।
नज़्मुद्दीन दरस सैफ़ी कि मस्जिद मे फ़ज्र कि नमाज़ मे थे शेख अब्दुलअली इमादुद्दीन भि। नज़्मुद्दीन और तमाम हुदूद इक्ट्ठा हुए और मौलाना अल मुक्कद्दस के पलंग के चौ तरफ़ परेशान हालत में खामोश बैठ गए। एक दूसरे के मुंह तक रहे हैं। सब मुतहिर थे कि मौलाना ने नस नहीं फ़रमाई अब क्या करें।
वज़ीरा आई आप कि वालिदा माजिदा आईं इस अज़ीम सदमे से बेहौश हो कर गिर पढि! शेख वली भाई उठे और वज़ीरा आई से पूछा वह बेहोशी मे थी कि क्या आपके बेटे ने नस फ़रमाई? बेहोशी कि हालत में चिल्लाईं कि नज़्मुद्दीन और खान अली खाइन [^1] ने भि उसका साथ दिया। नज़्मुद्दीन ने इस गलत साजिश को गनिमत समझ मौलाना बदरुद्दीन के जिस्म मुबारक को मस किया रसम के मुताबिक।
[^1] - यह खान अली नज़्मुद्दीन का दुशमन था, मक्कार खबीस था। इस ने मौके को गनिमत समझ कर नज़्मुद्दीन कि हिमायत की ताकि आइन्दाह फ़ायदा हो। - फ़ाइल्म
मनाहिल २ (दो)
जब उलमाए हाज़रीन ने इस मुनाकिर साज़िश देखा तो शेख अब्दुल्लाह भाई उठे और नज्मुद्दीन को अलग हुजरे मे ले गए और पूछा कि क्या मौलाना बदरूद्दीन ने आप पर नस की है? नज्मुद्दीन ने कहा कि नहीं खुदा कि कसम। इस तरह खुद नज़्मुद्दीन ने नस नहीं होने का साफ़ साफ़ इकरार किया।
नमाज़ य फ़ज्र के बाद मौलाना मुक्कद्दस कि तग्सील तक्सीन हुई। हाज़रीन उलमा के दरमयान आपस मे एक दूसरे से तवह्हश था। शेख अब्दे अली (बडे) इमादुद्दीन ने अपने नफ़स मे सोचा कि शेख अब्दुल अली (छोटे) और शेख वली भाई यह दोनो नज़्मुद्दीन से मिल गए हैं मुझे छोड कर और उन पर इत्तिफ़ाक कर लिया है। इधर यह दोनो शेख ने सुचा कि शेख अब्देअली (कबीर) नज़्मुद्दीन से मिल गए हैं। और दोनो ने आपस मे इस बात पर इत्तिफ़ाक कर लिया है, इसी लिए तो नज़्मुद्दीन ने इतनी दिलेरी से काम किया। फ़िर नज़्मुद्दीन ने सोचा कि मैनें कुछ नहीं किया जब तक मैं उन मशाइख को अपना हथकण्डा न बना लूं। नज़्मुद्दीन ने अपने नफ़्स मे यह सोचा कि सबसे पहले अब्दुल अली (कबीर) (इमादुद्दीन) को मैं अपने ज़ाल मे फ़ांसू जो कुछ हे वही है, अगर वह मेरे काबू मे आ गए तो फ़िर तो सब कुछ आसान हो जाएगा!!
नज़्मुद्दीन को मालूम था कि इन मशाइख कि क्या क्या उमंगें हैं बस वह पुरी कर दि जाए तो फ़िर तो मैं हि मैं हूँ। शेख अब्देअली कबीर (इमादी) कि उमंग यह थी कि शेख अल वज़ीर अब्दुल क़य्यूम के फ़ोक़ उनकि तरतीब हो जाए। यह शेख मौलाना ज़ैनुद्दीन के ज़माने से वज़ारत के औहदे पर फ़ाईज़ थे। नज़्मुद्दीन का ख्याल था कि मेरी खिदमतें बहुत ज़्यादा हैं अब इस मौके पर भी मेरी तरतीब शेख अब्दुल क़य्यूम अल वज़ीर के फ़ोक़ न हुई तो मैंने कुछ न किया। इस बात को लेकर उन्होंने मौलाना बदरूद्दीन कि तख्त नशिनी के मौके पर एक रूकु आप को लिखा था और आप कि मदह में लम्बा चौडा क़सीदा लिखा था। लिखा था कि या मौलाना आप मेरे वली अल नेअमत और मेरी मिनअम के बेटे हो मेरी देरीन उम्मीद तमाम हुई कि आप बदरे मफ़ीर बन कर चमके। अब इस मौके पर मेरी उम्मीद पुरी नहीं होगी तो कब होगी वह उम्मीद यह है कि शेख अब्दुल क़य्यूम अल वज़ीर कि फ़ोक मेरी तरतीब हो जाए। बदरुद्दीन आका ने मुल्ला सुलेमान भजि से इस रुकु के मुत्तालिक मशवरा लिया उन्होने बहुत से असबाब बताकर यह मशवरा दिया कि आप ऐसा न करें यह मेरी अपनी राय है और आप तो अल्लाह के नूर से नज़र फ़रमाते हैं। आप जो चाहें करें, मौलाना ने इस नज़्मी रुकु पर तो क़िअ कि "यह मुमकिन नहीं है।"
अब देखिये नज़्मुद्दीन इन तमाम अंदरुनि बातों से वाकिफ़ थे लिहाज़ा उन्होंने ठान ली अज़म कर लिया कि मैं अब्दुल अली अल कबीर को अपना बना सकूगां!! अब रहे अब्दुल अली अल सगीर (छोटे) तो उन कि हवस थी कि अपने भाई अब्दुल हुसैन को मालवाह के तमाम शहरों पर वाली बनाया जाए और यह गैर मुम्किन था इस लिए कि रईस इब्राहिम जी करीम भाई कि तरतीब उजैन में तमाम मफ़ायह के फ़ोक थी। हत्ता कि यह रसम थी कि थाल में वह बांई तरफ़ बैठते फ़िर भी रोटी तक़्सीम के वक़्त पह्ले उनके पास रखी जाति फ़िर अब्दुल हुसैन मज़कूर शेख के भाई के पास।
नज़्मुद्दीन इस अमर से वाकिफ़ थे तो सोचा कि मैं अब्दुल हुसैन को शेख बना कर उसकी तरतीब फ़ोक कर दूंगा। और ऐसा किया भी हालांकि यह अब्दुल हुसैन क़तअन फ़की आलिम नहीं थे। अब रहे शेख वली भाई तो नज़्मुद्दीन उनकी तरफ़ से बेखौफ़ थे। यह थी उलमा कि आपस कि क़शमक़श।
मनाहिल ३ (तीन) -
अब मौलाना मुक्कद्दस को दफ़न करने के बाद यह तिनो मशाइख मिलकर बेठै, एक दूसरे से मतवह्हश थे और हर एक के वहम में यही था कि नज़्मुद्दीन पर सब का इत्तिफ़ाक़ होगा। अचानक बडे शेख अब्दुल अली इमदुद्दीन ने बोलने कि पहल कि और कहा कि "क्या आप लोग देखते नहीं कि अपने शौहर का इंतिकाल हो गया अब हम उन के बाद बेवा हो गए लिहाज़ा हम को सौगवारी में रहना चाहिए, हराम है हम पर दुनिया कि किसी लज़्ज़त और ऐश से फ़ाइदा लेना। जिस तरह बेवा औरतें सौगवारी में हर क़िस्म कि ज़ैब व ज़ीनत, लज़्ज़त, कंगन, सूरमा और घर से बाहर निकलने से दूर रहती है बलकि वाज़िब है हम सब पर कि ज़ाहिरी बैतुल्लाह का सहारा लें जो मिसाल है ऐसी हालत मे कि बातिनी बैतुल्लाह फ़ौत हो गए जो मम्सूल है। इमादुद्दीन साहब का यह शेर मशहूर है:
छोड कर मादा सिफ़त सारे हुद्दुदे दीन को,
बदरुद्दीन आका दुआतुल हक़ के नर हि गए।
और हमारे माज़ून को तो आप जानते हो कि वह अपने दो हाथों मे से दाएं हाथ को निसा है वह भी नहीं जानते वह हद्दे ज़ईफ़ हैं अपने नफ़स में, इस अमर को वह चला नहीं सकते लिहाज़ा मेरी राए यह है कि इन को तो नगर मे हि मुक्कइयद रखें और अवामुन्नास पर उनके मुताल्लिक तअमियत (अंधापा) करें और नज़्मुद्दीन बज़ाहिर अल अमर मुतवल्ली हो जाए। हम दुआत के अमूर को इन के क़बज़े में रखें और हमारी जो तरतीबें हैं वह जों कि त्यौं रहें इस मे किसी किस्म कि ऊँच नीच न कि जाए। और हम बैतुल्लाह अल हराम का क़सद करें वहां मुअतिकफ़ रहें इलतिज़ा करें कि अल्लाह सुबहान्हु का हुक़्म आए और हम वहां से नई सिफ़ारत नया अमर ले कर लौटें? यह हे मेरी राए अब बताओ आपकी राए क्या है?
सब ने एक हि ज़बान से कहा कि आप कि जो राए है वह बराबर है और हम आपके ताबए हैं। फ़िर यह मशाइख नज़्मुद्दीन के पास गए (नज़्मुद्दीन को यह सब बातिनी खबर मिल चुकी थी) और जो बात हुई वह उनके सामने पेश की। नज़्मुद्दीन इंतिहाई दिलेराना अंदाज़ से मगरूराना लहज़े से बोले, "अयहा अल उलमा, ऐ उलमाने दीन मैं अमर ए अज़ीम का हक़दार नहीं हूँ मैं तो आप उलमा के सामने मुस्तफ़ीद (तालिब इल्म) का दर्ज़ा रखता हूँ मेरी आप से इलतिमास है कि मुझ पर यह बोझ मत डालें आप को दनिय दुनिया धोके में न डाले अगर आपने यही तय किया है कि इस अमर का कलादा मेरे गले मे हि डाला जाए तो फ़िर मेरी यह दरख्वास्त है कि आप लोग अपने इस अहद पर साबित रहना हटना मत, तगइयर तबदील मत करना व इल्ला इस का वबाल आप पर होगा और मैं अल्लाह तआला के नज़्दीक बरी अज़्ज़म्मत रहूंगा।"
कारईने किराम! गौर किजीए कितनी मक्काराना चाल और इबलीसाना जाल है यह कि जिस जाल में उलमा को नज़्मुद्दीन ने फ़सांया था। निसा उलमा कि अदंरूनी ज़माइर से वक़फ़ियत को सामने रखते हुए नज़्मुद्दीन ने इन सब को मगलूब मखलूब कर दिया। अगर यह रसूल अल्लाह (स.) के ज़माने में होते तो उन के लिए वही आयत उतरती जो वलीद बिन मुगीरा के लिए उतरी थी... कल्ला इन्ना काना ला यातिना अनय दन.... वमा अदराका मासासर. ( नहीं नहीं वह हमारी आयतों का मुखालिफ़ रहा है अभी इस को झंडे पर चढाता हूँ कयोंकि इस ने सोचा और तज़वीज़ किया फ़िर गारित हो कैसी तज़वीज़ की, फ़िर गारित हो कैसी तज़वीज़ की, फ़िर उसने देखा फिर तेवरी चढाई और मुंह बनाया फिर पीठ फ़ेर ली और तकब्बुर किया फ़िर कहने लगा यह तो एक जादू है जो चला आता है। यह तो होनिहु आदमी का क़लाम है, हम इसको अभी ज़हन्नम मे बेठाएंगे और ऐ मुखातिब तू क्या जाने ज़हन्न्म क्या है?)
नज़्मुद्दीन ने इस तरह उलमा को धोखा दिया उन को मबहूत कर दिया। उन्होंने कुछ जवाब न दिया और नज़्मुद्दीन कि खता को सवाब (सही) समझ बैठे और खुद अपनी राए को अपनी गर्दन में डाली और इस अमर अज़ीम का कलादह पहन लिया फ़िर हुआ भी ऐसा ही (जिस तरह अल्लाह ने फ़रमाया कि "जब बात तय हो गई तो शैतान ने कहा अल्लाह ने जो वादा किया वह सच्चा रहा और मैंने भी तमहीन वादह किया और तुम ने मुझे ज़वाब दिया अब मुझे कलाम मत करो बलकि खुद अपने आपको मलामत करो, न तुम मुझे मदद कर सकोगे न मैं तुम्हारी, तुम ने जो शिरक किया उसका मैं क़ज़र करता हूँ ज़ालमीन के लिए अलमनाक अज़ाब है) - मज़लिस बरख्वास्त।
मनाहिल राबेआ (चौथी) -
अब माहे रज़ब कि दूसरी तारीख मौलाना मुक्कद्दस का सोयम क दिन आया आपका इंतिकाल उन्तीस्वीं (२९) माहे ज़ुमादिल आखिर हिजरी १२५६ (बारह सौ छप्पन) यौमुल खमीस हुआ था और यह रसम थी कि नमाज़ ए फ़ज़्र में अगर पेश इमाम दाई उल वक़्त हो तो निदा कि जाए कि "भाईयों! नमाज़ के लिए चलो वालिद अल ज़ामिया (बावा साहब) मौलाना अल मन्नान नमाज़ पढाने को आ रहे हैं" अब नज़्मुद्दीन नमाज़ के लिए निकले तो मुनादी बुरंजी ने इसी तरह निदा कि जिस तरह दाई वक़्त के लिए कि जाति है। लो भाई अब तो मुनादी बुरंजी कि निदा से नज़्मुद्दीन सय्यदना मौलाना बावा साहिब बन गए। या ललअज़ब - इस निदा से उलमा बहुत सट पटाए क्योंकि इस तरह निदा नहीं करने कि भी उन्होंने शर्त ली थी!!
अब नज़्मुद्दीन कि तख्त नशीनि कि तय्यारि हुई। मौलाना मुक्कद्दस के वफ़ात के दस (१०) दिन बाद शानदार तख्त पर नज़्मुद्दीन बैठे, उलमा ने तहनियत व मदह कि कसाइद पढे कीमती दुशालात से सब नवाज़े गए और जो जो शर्तें ली थी वह सब भूल गए, नहीं बलकी अपनी जानों को और अल्लाह को भूल गए और अल्लाह कि मुखालिफ़त कि तो फ़िर अल्लाह भी उन को भूल गया ऐसे लोग हि फ़ासिक़ होते हैं।
इस तकरीब के बाद नज़्मुद्दीन ने शेख अब्दुल अली अल कबीर को मुकासिर बनाया और इमादुद्दीन का लकब दिया कुजा कि शेख अब्दुल कय्यूम अल वज़ीर के फ़ोक इन को मरत्तब किया और फिर हुसामुद्दीन को उन दोनो के बीच में मरत्तब कर दिया जिन को वज़ीर साहब के फ़ोक और इमदुद्दीन के तहत बैठाया और वज़ीर साहब के बेटे हबीबुल्लाह को हद्दे कबीर बना के इन को भी खुश कर दिया। इस तरह उनके ज़खम पर मरहम लगाया और दोनों को खुश करके उनको अपना मातिआ बना दिया।
वज़ीर साहब इमादुद्दीन से नाराज़ रहते उनका हाथ नहीं चूमते फ़क़्त हाथों कि उंगलियों से मुसाफ़ा करते फ़िर नज़्मुद्दीन ने शमसुद्दीन इब्राहिम भाईसहाब को गिराया हालांकि वह और हबीबुल्लाह बिन अल वज़ीर दोनों साथ थे। अब रहे शेख अब्दुल अली अल सगीर वलीअल्लाह तो उनकि मंशा के मुताबिक नज़्मुद्दीन ने उनके भाई अब्दुल हुसैन को शेख बना के उजैन के आला मुतवल्ली बना दिया। और उन्के भाई अब्दुल्लाह को शेख नहीं बनाया हालांकि मौलाना बदरुद्दीन ने जिन अशखास को शेखपना देने का इरादा किया था उन में यह अब्दुल्लाह भाई भी थे अलबत्ता उन को शेख युसुफ़ अली के फ़ोक रखा ताकि शेख अब्दुल अली अल क़बीर खुश रहें क्योंकि यह उनके भांजे थे। अल्लाह अल्लाह कैसी थी नज़्मी सियासत।
यह है वह असबाब कि जिन के बाइस नज़्मुद्दीन दावत कि कुर्सी पर मुतमक़ुन हुए। इबरत है यह जाते मज़कुरा है यह अक़्लमंदो के लिए बकौल खुदा सुबहानहु "उन लोगों ने मस्जिद ज़िरार क़ाइम की कि जिस के बाइस मज़र्रत क़ज़र मौमुन के दरमयान तफ़रीक पैदा हुआ और खुदा रसूल के दुश्मनों के लिए अच्छा मौका मुहय्या हुआ यह लोग तो हलफ़ी कहते हैं कि हम ने बहुत अच्छा किया लेकिन अल्लाह शाहिद है कि यह झूठे हैं"
मनाहिल खामिस (पाँच)
नज़्मुद्दीन को जब तमक्कुन हो गया तो फ़िर ऐश व इशरत कि तरफ़ अपनी लगाम फ़िराई। चन्द रोज़ के बाद मौलाना बदरूद्दीन (क़.स.) कि बेवाह बिवी खदीज़ा आई से शादी कि खुद वज़ीरा आई साहिबा मौलाना मुक़द्दस कि वालिदा माज़िदा ने इस अमर कि तवल्ली की। फ़िर आपकी दूसरी बेवाह बिवी रतन आई से शादी की शेख वली भाई कि वसातत से। देखिए नज़्मुद्दीन के लिए नसीब कि मुसाअदत व मुअफ़क़त! हत्ता कि बदरी हवेली पर भी क़ाबिज़ हो गए। मौलाना अल मुकद्दस के साथ बाद वफ़ात भी उन की यह हरक़त! साथ साथ.... आई और.... आई व गैर हुमा के साथ उन का..... (बजाए सत्र, सतर हि मुनासिब है!)
दुआत और उनके हुदुद के सीरत की सैर करने वालों के बागीचे
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मनाहिल खामिस (पाँच) -
नज़्मुद्दीन को जब तमक्कुन हो गया तो फ़िर ऐश व इशरत कि तरफ़ अपनी लगाम फ़िराई। चन्द रोज़ के बाद मौलाना बदरूद्दीन (क़.स.) कि बेवाह बिवी खदीज़ा आई से शादी कि खुद वज़ीरा आई साहिबा मौलाना मुक़द्दस कि वालिदा माज़िदा ने इस अमर कि तवल्ली की। फ़िर आपकी दूसरी बेवाह बिवी रतन आई से शादी की शेख वली भाई कि वसातत से। देखिए नज़्मुद्दीन के लिए नसीब कि मुसाअदत व मुअफ़क़त! हत्ता कि बदरी हवेली पर भी क़ाबिज़ हो गए। मौलाना अल मुकद्दस के साथ बाद वफ़ात भी उन की यह हरक़त! साथ साथ.... आई और.... आई व गैर हुमा के साथ उन का..... (बजाए सत्र, सतर हि मुनासिब है!)
.................................................................CHAPTER 4th - खमाइल राबेआ (चौथा) .................................................................
मनाहिल अव्वल -
कहा जाता है कि मोहम्मद अली नाम का एक सुलेमानी मौलाना बदरुद्दीन के हाथ पर मुस्तज़ीब हुआ था। यह शख्स सुलेमानी माज़ून का बेटा था। सुलेमानियों के साथ किसी झगडे के बाइस वह इधर आ गया। बदरुद्दीन आका ने उस की अच्छी मुआवनत कि। अब जब आप नस के बगैर वफ़ात हुए तो यह मुसतज़ीब कहने लगा कि मैं तो नार से निकल कर गार मे आ पडा। अब जब नज़्मुद्दीन कि तख्तनशिनी हुई और आप ने सब क पहला मिसाक लिया माहे रजब कि पंदहरवीं (१५) तारीख और आप कि तलकीन के मुताबिक सब लोग उलमा और मुअमिनीन नाम-नाम (हाँ - हाँ) कहने लगे तब यह मुसतज़ीब मोहम्मद अली ने ज़ाहिरन कहा "लाम - लाम" (नहीं - नहीं)। नाम-नाम के बजाए लाम-लाम कहता रहा!
इस शख्स क शेख वली भाई [^१] से ताल्लुक था। उन से तालीम भी लेता था। उन से कहा कि अल्लाह ने आप लोगों कि आँखों अबसार और बसिरतों को कैसी अंधी कर दी ए उलमा अल दुआत! आप ने इस तगूत को कैसे बेअत दिया? शेख ने इधर उधर कि बातें कर के लयन लतीफ़ से इस को खामोश करना चाहा। उस ने कहा कि ठीक है आप जो कुछ कह रहे हो सही है लेकिन मुझे यह बताओ कि "मौलाना बदरुद्दीन ने किसी पर नस की है?" शेख साहब ने जवाब दिया कि "नहीं" उस ने कहा कि बस इतना हि काफ़ी है जब आप लोग नाम-नाम कहते थे तो मैं लाम-लाम कहता था।
[^1 foot note]: यह शेख वली भाई शेख अहमद अली हमीदुद्दीन ज़नाब के वालिद माजिद और उस्ताद शफ़ीक हैं और इस किताब के किताब के मुसन्निफ़ उन के शागिर्द हैं।
मनाहिल २ (दो) -
सूरत में भयानक आग लगी थी उस का सबब नज़्मुद्दीन हि थे। तय्यब अली सूरती और अब्दुल क़ादिर अज़रक के मआरिफ़त वह मोगत राम से मिले जो अरवाह खबीसा को मुस्ख्खर करने में माहिर था। मोगत राम ने आप को एक वज़ीफ़ा सिखाया और कहा कि चालीस दिन तक इस को तमाम करने के बाद तमाम अवाहिल आप के ताबेअ हो जाएगी। हत्ता कि जिब्रईल, इस्राफ़ील और मिकाईल जैसे फ़रिश्ते भी आप कि फ़रमाबरदारी करेंगे। नज़्मुद्दीन ने यह अमल शुरू किया। रोज़ाना हज़ार दो हज़ार या लाख मर्तबा कागज़ पर जिब्रईल, इस्राफ़ील और मिकाईल लिख कर कागज़ के टुक्डों को आग में जलाते। चालीसवां दिन आया हि था कि सूरत में भयानक आग लगी। सब से पहले किताबों का खज़ाना, सैफ़ी दरस, बडी मस्जिद और ड्योढि कि हवेलियाँ जल कर खाक हो गई। शेख ईसा भाई ऊँचा सांस ले कर अफ़सोस करते हुए कहा करते थे कि इस आग का असल सबब नज़्मुद्दीन है। उफ़ तुफ़!!
मनाहिल ३ (तीन) -
कहा जाता है कि जब मौलाना बदरुद्दीन (क.स.) पूना में थे वहाँ रोशन अली मरसिया ख्वान हैदराबाद दक़्क़न से आए थे। मरसिया ख्वानि में अच्छे माहिर थे वह आप के सामने मरसिया पढते रहते थे। खलवत में जलवत में आप को बहुत पसंद थे। एक शब को आप अपने बाग में रोशन अली और मौलवी नज़र अली के साथ थे। आप कोचं पर और वह नीचे बैठे हुए थे। इतने में नज़्मुद्दीन आए इन को उन दोनों के साथ नीचे बैठने कि इज़ाज़्त दी वह आपके सामने बैठ तो गए लेकिन बाद में गज़बनाक हो कर उठे, जाने कि इज़ाज़्त मांगी मौलाना ने फ़रमाया कि भाई! क्यों जाना चाहते हो? कहा कि दर्दे सर हो गया है। इतना कह कर चल दिए।
हबीबुल्लाह अल वज़ीर उनके साथ गए। रास्ते में सांस लेते हुए बोले कि "बदरुद्दीन कौन होता है वह कब के दाई हादी बन गए। मेरे वालिद साहब ने कब उन पर नस की? अगर कि भी होती तो ववराने मर्ज़ में लाइलमी कि हालत में कि होगि। यह दुआत के मर्तबे के मुस्तहक़ नहीं हैं।" (यह दाकिआनूस वाक़्ये के मशाब है कि जब रसूलाल्लाह (स.) ने आखिर वक़्त में फ़रमाया कि "दवात कलम लाओ" उस वक़्त उमर ने कहा कि आप बक़वास करते हैं। मआज़ल्लाह! फ़िर नज़्मुद्दीन ने कहा कि "वह (बदरुद्दीन आक़ा) कोचं पर बैठे और मुझे नीचे बिठाए कम अज़ कम कुर्सी मंगवाकर सामने बैठाते।"
हबीबुल्लाह अल वज़ीर ने बाद में मौलाना को य सब बातें पहुँचा दी आप ने फ़रमाया कि "वह (नज़्मुद्दीन्) ईमान के बाद कुफ़्र पर आ गए, नेअमत का कुफ़्र किया।" फ़िर शेख ईसा भाई के सामने आपने कहा कि देखो यह नज़्मुद्दीन मुद्दत दराज़ से मुझे हर तरह ईज़ा दे रहे हैं मैंने सब्र से काम लिया अब वह इतनी हद तक पहुंच गए कि कह रहे हैं कि मौलाना ज़ैनुद्दीन ने मुझ पर नस नहीं कि। ऐ शेख जाओ और उनको समझाओ"। शेख उनके पास गए खादिम सुलतान ने आप को रोका तो आप उस को धक्का दे कर अंदर चले गए। नज़्मुद्दीन फ़ौरन उठ कर चिराग को बुझा दिया। शेख उनके सामने आए। सलाम तआज़ीम बगैर उन को कहा कि ऐसी कौन सी मुसिबत आ गई कि चिराग बुझा दिया? जवाब दिया कि मैं चिराग को दुरुस्त करने गया इत्तिफ़ाकन बुझ गया फ़िर दोनो बैठे नज़्मुद्दीन ने शेख को कहा कि सलाम और तआज़ीम बगैर? शेख ने कहा तू काफ़िर, मुशरिक और ईमान के दायरे से खारिज है? दीन के हद होने कि बात तो कुज़ा क्या तूने मौलाना कि शान में ऐसा ऐसा नहीं कहा? ज़वाब दिया "क्या है मैं नहीं जानता"। हबीबुल्लाह अल वज़ीर अगर शहादत दे तो तू क्या करेगा? नज़्मुद्दीन खामोश हो गए और रो कर कहा कि अब क्या करूं। शेख ने इंतिहाई तोबनिह करने के बाद उन को बडी मिन्नत समाझत के बाद मौलाना के पास ले आए उन्होंने आप के सामने खडे रह कर गरज़ की कि मौलाना! मुझे बख्श दीजिए, आका बदरूद्दीन ने उन को माफ़ करने के बाद गले से लगा कर बहुत रोए!!
मनाहिल ४ (चार) -
अनदूर के सफ़र के दौरान जब नज़्मुद्दीन बुरहानपुर पहुँचे तो उन के पास एक खत पहुँचा किसी अरबी शख्स ने खादिम लुकमान मशअलचीको यह खत दे कर कहा कि तुम्हारे मुद्दई को यह खत पहुँचा दो। खत में लिखा था (तर्ज़ुमा) - यह खत अब्दुल्लाह अल मआतसम कि तरफ़ से है। जान ले ऐ यूसुफ़ [^1] लहू लअब में क्यों मशगूल है नस के अमर से क्यों गाफ़िल है बहुत से असबाब के बाइस जिन का तुझे भि इल्म है नस तेरे से मुनकतए हो चुकी। अब तूने दावा किया कि तू दाई है। तू न तो दाई है न हादी! तुम्हारे दरमियान माज़ून क रुतबा ज़ारी है बाकी है। लज़लक़ ऐ यूसुफ़ बेदार हो जा और माज़ून के रुतबे कि हि खज़ुअ कर फ़िर वापस लौट कर खंमबात जा, वहां दस दिन तक ठहर के देख, इंतिज़ार कर कि क्या होता है फ़िर भरूंच होते हुए सूरत जा और माज़ून को बहुत जलद सूरत बुला और उनके सामने खज़ुअ कर ताकि सआदत मिले व इल्ला तुझ पर अल्लाह क अज़ाब नाज़िल होगा।
[^1]: नज़्मुद्दीन का नाम यूसुफ़ था फ़िर मौलाना अब्दे अली सैफ़ुद्दीन ने अब्दुल कादिर नाम रखा।
कुरआन कि आयत का तर्जुमा - "अल्लाह किसी कौम कि हालत नहीं बदलता हत्ता कि वह खुद बदल जाए। जब अल्लाह किसी कौम पर अज़ाब नाज़िल करने का इरादा करता है तो कोइ टाल नहीं सकता, सिवाए खुदा कोई मददगार नहीं वही तो बिजली चमकाता है उम्मीद वबीम के साथ और बादल पैदा करता है गरज इसके हमद कि तस्बिह करते हैं। व मलाइक़त भी और बिजलीयों से चाहे उनको अज़ाब करता है।"
तू मज़ून के लिए खुज़ु कर तो तेरे लिए मुकासिर का रुतबा सलामत रहेगा। जो शख्स लकडी तोडे उसी को जोडना चाहिए और अल्लाह कि इबादत को लाज़िम रहे।
यह खत सूरत बंदर से पाँचवी (5th) रजब को लिखा गया है। फ़िर अनदूर में जीवा शेख भाई कि दुकान पर दूसरा खत मिला जिसकी पुशत पर लिखा था कि "यह खत यूसुफ़ बिन अल दाई ज़ैनुद्दीन को पहुँचे"। उस में लिखा था: अल्लाह के बंदे अल मअतसिम कि तरफ़ से जान ले ऐ यूसुफ़! अज़ीम अमर से तेरी इतनी गफ़लत क्यों? क्या तू लोगों से डरता है? बेहतर है कि तू अल्लाह से डरे! तुझे जो हुकम दिया गया उस पर अभी तक अमल नहीं किया बलकी और ज़्यादा नफ़रत और इसतकबार करते हुए गलत रास्ते पर चल पडा रोशन और अक़्लमंदो का रास्ता छोड दिया अफ़सोस ए यूसुफ़! अब तुझे हुक्म है कि तू माज़ून कि इज़ाज़्त ले, ज़कातुल माल, ज़कातुल फ़तर वगैरह वसूल मत करना। अब जल्दी से सूरत आ और वहां चालीस दिन तक ठहर कर देख इंतिज़ार कर, इस हुक्म कि तामील कर यकायक अज़ाब आने से पहले संभल जा तेरे रब का अज़ाब आने वाला है। इस को कोई भी दफ़ा नहीं कर सकता जल्दी चल, ताखीर मत कर व अल सलाम।
इ खत के वसूल के बाद शब को नज़्मुद्दीन ने खवाब में देखा कि मौलाना ज़ैनुद्दीन के सामने वह अपने फ़आल पर नदामत करते हुए माफ़ी माँग रहे हैं। जवाब मिला कि नहीं ऐ बेटा तेरे लिए बारहा सिफ़ारिशें पेश कि गई मगर नामंज़ूर हुईं तुझ को सच्चे दुआत के ज़ुमरे में उन्होंने शामिल नहीं किया। न तेरे लिए कोई हक साबित किया लिहाज़ा तू बाज़ आ जा बंदर के मानिदं गैर साक़लान रास्ते पर मत चल, दावे छोड दे, हलाकी में मत पड। बस आँख खुल गई काँपते हुए उठे, सुबह होते हि आपके हमसफ़र शेख अब्दुल्लाह भाई को खवाब कि बात कह दि अल्लाह ने उन को ऐसी समझ दि कि सच्ची बात उन के मुँह से निकल गई। अब दो इमामी खतूत कि चर्चा होने लगी। हदूद और दुआत के अरकान में इज़तराब पैदा हो गया इमादुद्दीन ने भी एतराफ़ किया कि यह दोनो खत बिला शक सहाबुल ज़मान (सलवात) के हि हैं।
नज़्मुद्दीन अव्व्ल खत के मुतालिक इमदुद्दीन को सूरत लिखते हैं कि (तर्जुमा) - अल मुफ़ीद अल अज़ल को मालूम हो कि उन्नीसवीं (19th) शब को खयपया कि जोरी तीन दिन कि मियाद से भेजी थी वह हसबे मियाद पहुँची होगी उन को बहुत जल्दी में खत लिख कर भेजा था इस में लुकमान के इकरार कि ज़िक्र लिखी थी सो इल्म हुआ होगा खत लिखने वाले कि तहकीक की तदबीर वहां हसबे इमकान हुई होगी। खत में लिखा था कि ममलूक भी बरवज़े ईद हक़ीमी नज़र कि अदाई कि गरज से खंमबात आवेंगा ताकि ऐन-अल-यकीन हो जाए लेकिन बार बार अपने नफ़स में ख्याल करते हुए यह बात ठेहरी कि लुकमान क कौल भी वाज़ेअ नहीं है।
दलील कि ज़रूरत है। बलकी इसमे भी बआज़ वह तसव्वुर दिल मे आती है जो आप पहले लिख चुके हो कि अगर यह शखस अहल अल हक़ मे से है तो अलबत्ता उन को भी यह तसव्वुर होगी कि फ़क़्त एक हि मुशताबे खत पर क्यों अमल किया जाए गरचह खत मे जो कुछ लिखा है वह दरअसल वाक़ेए हुआ है लेकिन खत लिखने वाले को पहचानना वाजिब है कि वह है कौन?
मअज़लक बकौल लुकमान वह आप से मिलना चाहते थे तो आज दिन तक वह मिले क्यों नहीं? और पहले खत कि ताईद दूसरे खत से क्यों न की मुमकिन है कि वह अब आप से मिले या दूसरा और वाज़ेअ खत लिखे लेकिन हम कातिब कि तहकीक करने मे माखूज़ नहीं हैं कि क्यों ताखीर की अगरचे खत में जो कुछ लिखा है वाकेअ हुआ है। उसके साथ दुआत हादी के निज़ाम कि हिफ़ाज़त करने के हम मुद्दई नहीं हैं बलकी जब नस्से ज़ली हसबे कानून फ़ौत हुई तब यह तसव्वुर आई कि या तो माज़ून के रुतबे से ताल्लुक़ करें या हमारे गुनाहों के बाइस जब नस्से ज़ली वाकेए न हुई तो नस्से खफ़ी के वाकेए पर अमल करें आखिर अल अमरि बात ठेहरी कि अबना अल दुआत में नज़र की कि जो शख्स ऐसा हो कि जिस कि तरफ़ फ़ज़ल के इशारात खज़ी होए हों तो यह शख्स नस्से खफ़ी के हसूल को बुनियाद बना कर हफ़ज़ कि खिदमत ले उठे बस इस तसव्वुर पर अमल हुआ।
उम्मीद थी कि कोई अज़र का हसूल होगा खेर यह मानी अल मौली अल मालिक (इमाम) के नज़दीक नापसंदिदा हुई और रियासत के ज़वाल का तो वसूस नहीं हैं बलकी यह तो अपनी ऐनी सआदत है जो तसीन पर यकीन ज़्यादा करता है कि साढे सात सौ बरस बाद अल तसाल कि नेअमत मिल रही है। वह अपने मालिक थे तलाफ़ि कर लि, संभाला लेकिन कातिब को पहचानना वाज़िब है फ़िर अमल किया जाए। मेरा खमबात का कसद भी इस अमल का ज़ज़ा है लज़लक आप भी इस अमर की तहकीक हसबे ताकत ज़रुर करिये।
यहां से आज लुकमान और चान्दा भाई सिपाही को रुख्सत किया कि वह पहले खमबात जाए वहां चार पाँच दिन रहें खत लिखने वाले कि तलाश करे क्योंकि लुकमान उनको पहचानता है। अगर ज़फ़रयाबि मिली तो अलहम्दोलिल्लाह उसी रोज़ मम्लूक (नज़्मुद्दीन) पर खमबात के आमिल तीन चार दिन कि मिआद से खिपया कि जोडि फ़ौरन अन्दूर भेजे बहरहाल तहकीक के बाद इंशाल्लाह खमबात कसद करूंगा। आमिल को लिख चुका हूं अगर कोई पता न लगे तो दोनो सूरत हाज़िर होंगे वहां लुकमान से खिदमत लिजिए अगर जब उम्मीद कोई पते लगे तो फ़ोरन आप भी मम्लूक को मलूम किजिए आप के खत के पहुँचते हि फ़ोरन चलुँगा इंशाल्लाह तआला।
इस के साथ आप कि राय मुनीर में यह हो कि मम्लूक खुद तहकीक के लिए खमबात जाए ताकि हम पर कोई इल्ज़ाम न रहे और कोई यह न कहे सके कि हमने आखिरत को छोड कर दुनिया को इख्तियार कि अगरचे यह सफ़र भी तो दावत हादिया कि खिदमतों मे से है तो फ़ोरन इसी कासिद के साथ या और किसी के साथ ज़वाब लिखें। मम्लूक इसी वज़ह से नज़र हक़िमी कि अदाई के लिए बुरहानपुर भी नहीं गए वह इस लिए कि अगर खमबात आने कि राए मिली सबील अल इम्तिहान मुकर्रर हो तो ज़ियारत का बहाना बाकि रहे। अब जो भी आप के ख्याल मे आए मुझे फ़ोरन लिखिए। अल्लाह खैर कि तौफ़ीक दे।
ऐ अल्लाह तेरे माह मुबारक कि हुर्मत से और आज ईदुल फ़ित्र कि हुर्मत से तू हमको तेरी मरज़ी के मुताबिक तौफ़ीक अता कर। हम तेरे बन्दे हैं और तेरे इबादे मुस्तफ़ेन कि गुलामी में तेरे अमर कि तबाअत करने वाले हैं, बिदअत वाले नहीं...
यह खत मैंने लिखा ताकि आपको इतमिनान मिले वअस्सलाम सुबह ईद उल फ़ित्र इस कि तहरीर हुई। मैं दर्द ओ गम के दरिया के मौजों मुन्ज़्द हार में फ़ंसा हुआ हूँ। आप के जवाब का मुन्तज़िर हूँ जिस तरह खुशक साली में बारिश का इंतिज़ार होता है। (इंतिहाई) यह है नज़्मुद्दीन का कौल इस खत में जो साहिबे तौफ़ीक के लिए वाजे है।
बिल्कुल इसी किस्म के और भी खतूत इस किताब में हैं जिस में इसी तरह तशवीशात परेशानियाँ, घबराहट, क्या करना, क्या नहीं करना, कहां जाना, कहां नहीं जाना, कहां ठहरना और अपने किए पर नदामत करना वगैरह से यह खतूत भरपूर हैं। इन खतूत मे से चुनिन्दाह ज़ुमले यहां लिखे जाते हैं)^१
^१: अगर नज़्मुद्दीन अपने फ़आल (कयाम) में यकीन पर होता तो धमकी वाले इमामी खतूत आने पर कभी परेशान न होते, परेशान भी तो हद से ज़्यादा जैसा कि उन के खतूत से वाज़े है।
एक खत में नज्मुद्दीन साहब लिखते हैं कि "अगर मैं खमबात जाऊं और वहां अपना मकसद पूरा हो जाए और मालिकुल उमूर (इमामी खत लिखने वाले) हुकम करे कि सूरत जाऊं तो हुक्म कि तामील करूंगा और अगर यह हुक्म करें कि माजून साहब के पास जाओ तो आँखों के बल जाऊँगा और यह तो अपनी सआदत की बात है।"
इस किस्म कि पसोपेश कि बातें लिख कर लिखतें है कि, "मैं तंदरुस्त कि सूरत में बीमार हूँ। बबूल के अँगारों पे लौट रहा हूँ। मेरा दिन बद्दल वाला और रात घट काली। कुछ भी नहीं सूझता कोई रास्ता नहीं मिलता मेरी बिमारी लाईलाज़ है। लेकिन मेरे हुदात शिफ़ा मौहम्मद अली फ़ातिमा हसन हुसैन और उनके इतरत ताहिरत अलयहिस्सलाम हैं...... मैंने यह खत लिखा तो है मगर मैं नहीं जानता कि सही लिखा है या गलत, सबब कि मैं ऐसी परेशानकुन हालत में हूँ कि जिससे छुटकारा य तो मौत से हो सकता है य महज़ूब बात के कशफ़ से। शहरूल्लाह अल मुअज्जम।
एक खत में इंतिहाई तशवीश के बाद लिखते हैं कि "इमामी खत कि चर्चा आम हो गई है। लोगों में इंतिशार हो रहा है। अगर कोई अमर मुतबय्यीन हुआ तो फ़िर क्या हाल? किस्म किस्म के खयालात पैदा हो रहे हैं। दिल को किसी तरह इतमिनान नहीं है, न सफ़र में लज़्ज़त, न इकामत मे लुत्फ़..... आदा-ए-दीन तो चाहे इस तरह कहते हैं साबिक तस्व्वुर के मुताबिक दिल पर हमेशा यही बात तालअ रहती है कि काश कि उस वक्त माज़ून से तआल्लुक करते ताकी वली अल असर बफ़ज़ल अली मन यशा करते और अपन इस मिसल कि धमकी से अमान में रहते मअज़लक़ लाख लाख शुक्र अगर सही है क्योंकि धनी का कोई धनी नहीं वह चाहे सो करे अदना गुलाम के हाथ यह अज़र (चालू) किया है और खत मे कोई ऐब-ज़ोई नहीं है सिवाए खैर-ख्वाही और धमकी अगर हम खज़ु न करें तो। इद्दाअ (दावा किया) का लफ़्ज़ भी नहीं है बलकी दऊत (दआवत कि) लिखा है भी यही बात कि हम मुद्दई बन कर कायम नहीं हुए इसी तरह दिल पर खतरात गुजर रहे हैं कि जो कुछ आए कोई हरज़ नहीं बकौल खुदा "जो लोग हमारी राह में कोशिश करते हैं हम उनको हमारी सिधी राहें बताते हैं। खत बहुत ज़ल्दी में लिखा हूँ आप भी फ़ौरन जवाब लिखते रहें".... सुबह जुमाअ २६ शहरुल्लाह अल मुअज़्ज़म। [^1]
[^1] - नज्मुद्दीन के इन खतूत कि सही सबूत के लिए काफ़ि है यह कि इस किताब के ज़वाब लिखने वाले शेख ने इन खतूत को नज्मुद्दीन के खतूत बताया है।
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...........................................................इन खतुते नज़मी पर मुसन्निफ़ अल किताब का तसरह........................................................
(1) नज़्मुद्दीन ने खुद अपने नफ़स पर इकरार किया है अपने खतूत में कि माज़ून साहब से तआल्लुक करना चाहिए। बिलकुल सच कहा लेकिन उन्होंने रियासत कि ख्वाहिश कि खातिर इस पर फ़ौरन अमल नहीं किया [^२] और अपने ऊपर गैर को मुतह्क्किम नहीं होने दिया और खुद अकेले रियासत पर काबिज़ रहे मतसल्ल्त रहे।
(2) नज़मुद्दीन ने अपने खतूत में यह असबात किया है कि "नस्से ज़ली नहीं हुई" यह बात भी इनकी सच है। अब रहा उन का यह दावा कि उन पर फ़ज़ल (नस) के इशारात खज़यि हुए तो यह तो अव्वल के दावों के मानिंद है कि नबी (स) साहब ने उन को नमाज़ मुक्द्दम किया, गार में साथ रखा, उनके लिए रिदा बिछाई, वगैरह खुराफ़ात कि जिस को उनकी इत्तिबा ने उन कि खिलाफ़त के सबूत में हुज़्ज़त बना ली और अमीर-अल-मुमिनीन अली (अ) पर इन को मुकद्दम किया! मौलाना अब्दे अली सैफ़ुद्दीन ने मौलाना एज़ुद्दीन को अपने खानदान को छोड कर काईम किया नस ज़ली से, इशारात से नहीं। यह बात मोहकम है कि नस ज़ली बगैर इशारात बेकार है। इशारात के साथ नस ज़ली का होना ज़रूरी है। फ़क्त इशारात पर इत्तिमाद करने वाला दज़्ज़ाल आअर एक आँख वाला दज़्ज़ाल है। नस खफ़ी नस ज़ली का ताबअ है। ज़ली खफ़ी का ताबअ नहीं। ज़ली और खफ़ी दोनों लाज़िम मल्ज़ूम है।
[^2] - अब्दे अली इमादुद्दीन कि वफ़ात के बाद अब्दुल अली वली कि ताकीद से माज़ून साहब से इज़ाज़त ली खज़ू किया मगर अफ़सोस कि बाद मे मुकर गए।.
(3) नज़मुद्दीन का दावा कि दो (२) अज़र में से एक तो हम को ज़रूर मिलेगा दुआत कि खिदमत करने में, यह तो उस चोर कि मानिंद है कि बैतुल-माल से एक डारम (अनार) कि चोरी कि और उस डारम को मिस्कीन को दे कर सदकात करने का अज़र हासिल करने कि तमन्ना कि। चोरी और गरीबों पे शफ़्फ़क्कत!? और अज़र!? किस ने नज़मुद्दीन पर यह बोझ डाला कि जिस बोझ को उठा कर वह ज़हन्न्म का मुस्तहिक हुवा!!?
अगर कोई कहे कि उन्होंने दावत कि हिफ़ाज़त कि खातिर बहुत हि मेहनत मशक्कत उठाई तो उसका जवाब यह है कि "हरगिज़ नहीं, झूठ है यह। अलबत्ता दुनियादारी रियासत नज़ासतकि चाहत कि बाइस उन्होंने किया जो कुछ किया! अगर कोई एतराज़ करके कहे कि "अगर नज़मुद्दीन साहब निज़ाम-दवात कि हिफ़ाज़त न करते तो मुमिनीन का ज़त्था बिखर जाता, तितर-बितर हो जाते। ज़वाब कि दुवाते हादिया का एक रब मालिक है जो उसका मुहामी है अगर वह उसकी हिमायत (हिफ़ाज़त) न करे तो फ़िर कौन उसकी हिमायत (हिफ़ाज़त) करेगा हाशालिल्लाह ऐसा नहीं हो सकता अलबत्ता अगर फ़ासिद खमाइर वाले यह समझते हैं कि हम उनके मुहाफ़िज़ हैं तो उसकी मिसाल चमगाडर कि है कि अपने पैर से दरखत कि डाली पर लटकता है और समझता है कि इन आसमानों को मैंने अपने पैरों से रोक रखा है अगर मैं ऐसा न करूं तो आसमान अभी नीचे गिर पडे। इसी तरह कुत्ता घडी के नीचे चलता है और यह समझता है कि मैं हि इस बोझ भरी घडी को चला रहा हूँ। इसी तरह इस नाज़िम नज़मुद्दीन का ख्याल है कि मैं हि दावते-हादिया का हाफ़िज़ हूँ, मैं इमामुज़्ज़मान कि तरफ़ से मुलहम हूँ, मैं हि दावत को सभांल रहा हूँ जैसा कि एक मच्छर ने खज़ूरी को कहा कि तू साबित रहना मैं तेरे ऊपर आ के बैठ रहा हूँ मेरे वज़न से गिरना मत। खज़ूरी ने कहा कि तू मुझ पर आ के बैठे तो मुझे तो उसका शऊर (एहसास)भी नहीं होता तो भला मैं तेरे वज़न से कैसे घिर पडूं। (यह है नज़मुद्दीन के बहाने)।
मौलाना अब्दुल मुतलिब अलयहिस्सलाम ने हाथी वाले अब्रहि को कहा कि मेरा माल (ऊँट) मुझे दे दे।मुझे काबातुल्लाह कि फ़िक्र नहीं है, काबा का मालिक अल्लाह है, अल्लाह खुद अपने घर कि हिफ़ाज़त करेगा। फ़िर अल्लाह सुबहानहू ने अबाबील के ज़रिए अपने घर कि हिफ़ाज़त कि।
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.................................................................***** तीन फ़िरके *****.................................................................
नज़्मुद्दीन को जब तमक्कुन हो गया तो फ़िर ऐश व इशरत कि तरफ़ अपनी लगाम फ़िराई। चन्द रोज़ के बाद मौलाना बदरूद्दीन (क़.स.) कि बेवाह बिवी खदीज़ा आई से शादी कि खुद वज़ीरा आई साहिबा मौलाना मुक़द्दस कि वालिदा माज़िदा ने इस अमर कि तवल्ली की। फ़िर आपकी दूसरी बेवाह बिवी रतन आई से शादी की शेख वली भाई कि वसातत से। देखिए नज़्मुद्दीन के लिए नसीब कि मुसाअदत व मुअफ़क़त! हत्ता कि बदरी हवेली पर भी क़ाबिज़ हो गए। मौलाना अल मुकद्दस के साथ बाद वफ़ात भी उन की यह हरक़त! साथ साथ.... आई और.... आई व गैर हुमा के साथ उन का..... (बजाए सत्र, सतर हि मुनासिब है!)
.................................................................CHAPTER 4th - खमाइल राबेआ (चौथा) .................................................................
मनाहिल अव्वल -
कहा जाता है कि मोहम्मद अली नाम का एक सुलेमानी मौलाना बदरुद्दीन के हाथ पर मुस्तज़ीब हुआ था। यह शख्स सुलेमानी माज़ून का बेटा था। सुलेमानियों के साथ किसी झगडे के बाइस वह इधर आ गया। बदरुद्दीन आका ने उस की अच्छी मुआवनत कि। अब जब आप नस के बगैर वफ़ात हुए तो यह मुसतज़ीब कहने लगा कि मैं तो नार से निकल कर गार मे आ पडा। अब जब नज़्मुद्दीन कि तख्तनशिनी हुई और आप ने सब क पहला मिसाक लिया माहे रजब कि पंदहरवीं (१५) तारीख और आप कि तलकीन के मुताबिक सब लोग उलमा और मुअमिनीन नाम-नाम (हाँ - हाँ) कहने लगे तब यह मुसतज़ीब मोहम्मद अली ने ज़ाहिरन कहा "लाम - लाम" (नहीं - नहीं)। नाम-नाम के बजाए लाम-लाम कहता रहा!
इस शख्स क शेख वली भाई [^१] से ताल्लुक था। उन से तालीम भी लेता था। उन से कहा कि अल्लाह ने आप लोगों कि आँखों अबसार और बसिरतों को कैसी अंधी कर दी ए उलमा अल दुआत! आप ने इस तगूत को कैसे बेअत दिया? शेख ने इधर उधर कि बातें कर के लयन लतीफ़ से इस को खामोश करना चाहा। उस ने कहा कि ठीक है आप जो कुछ कह रहे हो सही है लेकिन मुझे यह बताओ कि "मौलाना बदरुद्दीन ने किसी पर नस की है?" शेख साहब ने जवाब दिया कि "नहीं" उस ने कहा कि बस इतना हि काफ़ी है जब आप लोग नाम-नाम कहते थे तो मैं लाम-लाम कहता था।
[^1 foot note]: यह शेख वली भाई शेख अहमद अली हमीदुद्दीन ज़नाब के वालिद माजिद और उस्ताद शफ़ीक हैं और इस किताब के किताब के मुसन्निफ़ उन के शागिर्द हैं।
मनाहिल २ (दो) -
सूरत में भयानक आग लगी थी उस का सबब नज़्मुद्दीन हि थे। तय्यब अली सूरती और अब्दुल क़ादिर अज़रक के मआरिफ़त वह मोगत राम से मिले जो अरवाह खबीसा को मुस्ख्खर करने में माहिर था। मोगत राम ने आप को एक वज़ीफ़ा सिखाया और कहा कि चालीस दिन तक इस को तमाम करने के बाद तमाम अवाहिल आप के ताबेअ हो जाएगी। हत्ता कि जिब्रईल, इस्राफ़ील और मिकाईल जैसे फ़रिश्ते भी आप कि फ़रमाबरदारी करेंगे। नज़्मुद्दीन ने यह अमल शुरू किया। रोज़ाना हज़ार दो हज़ार या लाख मर्तबा कागज़ पर जिब्रईल, इस्राफ़ील और मिकाईल लिख कर कागज़ के टुक्डों को आग में जलाते। चालीसवां दिन आया हि था कि सूरत में भयानक आग लगी। सब से पहले किताबों का खज़ाना, सैफ़ी दरस, बडी मस्जिद और ड्योढि कि हवेलियाँ जल कर खाक हो गई। शेख ईसा भाई ऊँचा सांस ले कर अफ़सोस करते हुए कहा करते थे कि इस आग का असल सबब नज़्मुद्दीन है। उफ़ तुफ़!!
मनाहिल ३ (तीन) -
कहा जाता है कि जब मौलाना बदरुद्दीन (क.स.) पूना में थे वहाँ रोशन अली मरसिया ख्वान हैदराबाद दक़्क़न से आए थे। मरसिया ख्वानि में अच्छे माहिर थे वह आप के सामने मरसिया पढते रहते थे। खलवत में जलवत में आप को बहुत पसंद थे। एक शब को आप अपने बाग में रोशन अली और मौलवी नज़र अली के साथ थे। आप कोचं पर और वह नीचे बैठे हुए थे। इतने में नज़्मुद्दीन आए इन को उन दोनों के साथ नीचे बैठने कि इज़ाज़्त दी वह आपके सामने बैठ तो गए लेकिन बाद में गज़बनाक हो कर उठे, जाने कि इज़ाज़्त मांगी मौलाना ने फ़रमाया कि भाई! क्यों जाना चाहते हो? कहा कि दर्दे सर हो गया है। इतना कह कर चल दिए।
हबीबुल्लाह अल वज़ीर उनके साथ गए। रास्ते में सांस लेते हुए बोले कि "बदरुद्दीन कौन होता है वह कब के दाई हादी बन गए। मेरे वालिद साहब ने कब उन पर नस की? अगर कि भी होती तो ववराने मर्ज़ में लाइलमी कि हालत में कि होगि। यह दुआत के मर्तबे के मुस्तहक़ नहीं हैं।" (यह दाकिआनूस वाक़्ये के मशाब है कि जब रसूलाल्लाह (स.) ने आखिर वक़्त में फ़रमाया कि "दवात कलम लाओ" उस वक़्त उमर ने कहा कि आप बक़वास करते हैं। मआज़ल्लाह! फ़िर नज़्मुद्दीन ने कहा कि "वह (बदरुद्दीन आक़ा) कोचं पर बैठे और मुझे नीचे बिठाए कम अज़ कम कुर्सी मंगवाकर सामने बैठाते।"
हबीबुल्लाह अल वज़ीर ने बाद में मौलाना को य सब बातें पहुँचा दी आप ने फ़रमाया कि "वह (नज़्मुद्दीन्) ईमान के बाद कुफ़्र पर आ गए, नेअमत का कुफ़्र किया।" फ़िर शेख ईसा भाई के सामने आपने कहा कि देखो यह नज़्मुद्दीन मुद्दत दराज़ से मुझे हर तरह ईज़ा दे रहे हैं मैंने सब्र से काम लिया अब वह इतनी हद तक पहुंच गए कि कह रहे हैं कि मौलाना ज़ैनुद्दीन ने मुझ पर नस नहीं कि। ऐ शेख जाओ और उनको समझाओ"। शेख उनके पास गए खादिम सुलतान ने आप को रोका तो आप उस को धक्का दे कर अंदर चले गए। नज़्मुद्दीन फ़ौरन उठ कर चिराग को बुझा दिया। शेख उनके सामने आए। सलाम तआज़ीम बगैर उन को कहा कि ऐसी कौन सी मुसिबत आ गई कि चिराग बुझा दिया? जवाब दिया कि मैं चिराग को दुरुस्त करने गया इत्तिफ़ाकन बुझ गया फ़िर दोनो बैठे नज़्मुद्दीन ने शेख को कहा कि सलाम और तआज़ीम बगैर? शेख ने कहा तू काफ़िर, मुशरिक और ईमान के दायरे से खारिज है? दीन के हद होने कि बात तो कुज़ा क्या तूने मौलाना कि शान में ऐसा ऐसा नहीं कहा? ज़वाब दिया "क्या है मैं नहीं जानता"। हबीबुल्लाह अल वज़ीर अगर शहादत दे तो तू क्या करेगा? नज़्मुद्दीन खामोश हो गए और रो कर कहा कि अब क्या करूं। शेख ने इंतिहाई तोबनिह करने के बाद उन को बडी मिन्नत समाझत के बाद मौलाना के पास ले आए उन्होंने आप के सामने खडे रह कर गरज़ की कि मौलाना! मुझे बख्श दीजिए, आका बदरूद्दीन ने उन को माफ़ करने के बाद गले से लगा कर बहुत रोए!!
मनाहिल ४ (चार) -
अनदूर के सफ़र के दौरान जब नज़्मुद्दीन बुरहानपुर पहुँचे तो उन के पास एक खत पहुँचा किसी अरबी शख्स ने खादिम लुकमान मशअलचीको यह खत दे कर कहा कि तुम्हारे मुद्दई को यह खत पहुँचा दो। खत में लिखा था (तर्ज़ुमा) - यह खत अब्दुल्लाह अल मआतसम कि तरफ़ से है। जान ले ऐ यूसुफ़ [^1] लहू लअब में क्यों मशगूल है नस के अमर से क्यों गाफ़िल है बहुत से असबाब के बाइस जिन का तुझे भि इल्म है नस तेरे से मुनकतए हो चुकी। अब तूने दावा किया कि तू दाई है। तू न तो दाई है न हादी! तुम्हारे दरमियान माज़ून क रुतबा ज़ारी है बाकी है। लज़लक़ ऐ यूसुफ़ बेदार हो जा और माज़ून के रुतबे कि हि खज़ुअ कर फ़िर वापस लौट कर खंमबात जा, वहां दस दिन तक ठहर के देख, इंतिज़ार कर कि क्या होता है फ़िर भरूंच होते हुए सूरत जा और माज़ून को बहुत जलद सूरत बुला और उनके सामने खज़ुअ कर ताकि सआदत मिले व इल्ला तुझ पर अल्लाह क अज़ाब नाज़िल होगा।
[^1]: नज़्मुद्दीन का नाम यूसुफ़ था फ़िर मौलाना अब्दे अली सैफ़ुद्दीन ने अब्दुल कादिर नाम रखा।
कुरआन कि आयत का तर्जुमा - "अल्लाह किसी कौम कि हालत नहीं बदलता हत्ता कि वह खुद बदल जाए। जब अल्लाह किसी कौम पर अज़ाब नाज़िल करने का इरादा करता है तो कोइ टाल नहीं सकता, सिवाए खुदा कोई मददगार नहीं वही तो बिजली चमकाता है उम्मीद वबीम के साथ और बादल पैदा करता है गरज इसके हमद कि तस्बिह करते हैं। व मलाइक़त भी और बिजलीयों से चाहे उनको अज़ाब करता है।"
तू मज़ून के लिए खुज़ु कर तो तेरे लिए मुकासिर का रुतबा सलामत रहेगा। जो शख्स लकडी तोडे उसी को जोडना चाहिए और अल्लाह कि इबादत को लाज़िम रहे।
यह खत सूरत बंदर से पाँचवी (5th) रजब को लिखा गया है। फ़िर अनदूर में जीवा शेख भाई कि दुकान पर दूसरा खत मिला जिसकी पुशत पर लिखा था कि "यह खत यूसुफ़ बिन अल दाई ज़ैनुद्दीन को पहुँचे"। उस में लिखा था: अल्लाह के बंदे अल मअतसिम कि तरफ़ से जान ले ऐ यूसुफ़! अज़ीम अमर से तेरी इतनी गफ़लत क्यों? क्या तू लोगों से डरता है? बेहतर है कि तू अल्लाह से डरे! तुझे जो हुकम दिया गया उस पर अभी तक अमल नहीं किया बलकी और ज़्यादा नफ़रत और इसतकबार करते हुए गलत रास्ते पर चल पडा रोशन और अक़्लमंदो का रास्ता छोड दिया अफ़सोस ए यूसुफ़! अब तुझे हुक्म है कि तू माज़ून कि इज़ाज़्त ले, ज़कातुल माल, ज़कातुल फ़तर वगैरह वसूल मत करना। अब जल्दी से सूरत आ और वहां चालीस दिन तक ठहर कर देख इंतिज़ार कर, इस हुक्म कि तामील कर यकायक अज़ाब आने से पहले संभल जा तेरे रब का अज़ाब आने वाला है। इस को कोई भी दफ़ा नहीं कर सकता जल्दी चल, ताखीर मत कर व अल सलाम।
इ खत के वसूल के बाद शब को नज़्मुद्दीन ने खवाब में देखा कि मौलाना ज़ैनुद्दीन के सामने वह अपने फ़आल पर नदामत करते हुए माफ़ी माँग रहे हैं। जवाब मिला कि नहीं ऐ बेटा तेरे लिए बारहा सिफ़ारिशें पेश कि गई मगर नामंज़ूर हुईं तुझ को सच्चे दुआत के ज़ुमरे में उन्होंने शामिल नहीं किया। न तेरे लिए कोई हक साबित किया लिहाज़ा तू बाज़ आ जा बंदर के मानिदं गैर साक़लान रास्ते पर मत चल, दावे छोड दे, हलाकी में मत पड। बस आँख खुल गई काँपते हुए उठे, सुबह होते हि आपके हमसफ़र शेख अब्दुल्लाह भाई को खवाब कि बात कह दि अल्लाह ने उन को ऐसी समझ दि कि सच्ची बात उन के मुँह से निकल गई। अब दो इमामी खतूत कि चर्चा होने लगी। हदूद और दुआत के अरकान में इज़तराब पैदा हो गया इमादुद्दीन ने भी एतराफ़ किया कि यह दोनो खत बिला शक सहाबुल ज़मान (सलवात) के हि हैं।
नज़्मुद्दीन अव्व्ल खत के मुतालिक इमदुद्दीन को सूरत लिखते हैं कि (तर्जुमा) - अल मुफ़ीद अल अज़ल को मालूम हो कि उन्नीसवीं (19th) शब को खयपया कि जोरी तीन दिन कि मियाद से भेजी थी वह हसबे मियाद पहुँची होगी उन को बहुत जल्दी में खत लिख कर भेजा था इस में लुकमान के इकरार कि ज़िक्र लिखी थी सो इल्म हुआ होगा खत लिखने वाले कि तहकीक की तदबीर वहां हसबे इमकान हुई होगी। खत में लिखा था कि ममलूक भी बरवज़े ईद हक़ीमी नज़र कि अदाई कि गरज से खंमबात आवेंगा ताकि ऐन-अल-यकीन हो जाए लेकिन बार बार अपने नफ़स में ख्याल करते हुए यह बात ठेहरी कि लुकमान क कौल भी वाज़ेअ नहीं है।
दलील कि ज़रूरत है। बलकी इसमे भी बआज़ वह तसव्वुर दिल मे आती है जो आप पहले लिख चुके हो कि अगर यह शखस अहल अल हक़ मे से है तो अलबत्ता उन को भी यह तसव्वुर होगी कि फ़क़्त एक हि मुशताबे खत पर क्यों अमल किया जाए गरचह खत मे जो कुछ लिखा है वह दरअसल वाक़ेए हुआ है लेकिन खत लिखने वाले को पहचानना वाजिब है कि वह है कौन?
मअज़लक बकौल लुकमान वह आप से मिलना चाहते थे तो आज दिन तक वह मिले क्यों नहीं? और पहले खत कि ताईद दूसरे खत से क्यों न की मुमकिन है कि वह अब आप से मिले या दूसरा और वाज़ेअ खत लिखे लेकिन हम कातिब कि तहकीक करने मे माखूज़ नहीं हैं कि क्यों ताखीर की अगरचे खत में जो कुछ लिखा है वाकेअ हुआ है। उसके साथ दुआत हादी के निज़ाम कि हिफ़ाज़त करने के हम मुद्दई नहीं हैं बलकी जब नस्से ज़ली हसबे कानून फ़ौत हुई तब यह तसव्वुर आई कि या तो माज़ून के रुतबे से ताल्लुक़ करें या हमारे गुनाहों के बाइस जब नस्से ज़ली वाकेए न हुई तो नस्से खफ़ी के वाकेए पर अमल करें आखिर अल अमरि बात ठेहरी कि अबना अल दुआत में नज़र की कि जो शख्स ऐसा हो कि जिस कि तरफ़ फ़ज़ल के इशारात खज़ी होए हों तो यह शख्स नस्से खफ़ी के हसूल को बुनियाद बना कर हफ़ज़ कि खिदमत ले उठे बस इस तसव्वुर पर अमल हुआ।
उम्मीद थी कि कोई अज़र का हसूल होगा खेर यह मानी अल मौली अल मालिक (इमाम) के नज़दीक नापसंदिदा हुई और रियासत के ज़वाल का तो वसूस नहीं हैं बलकी यह तो अपनी ऐनी सआदत है जो तसीन पर यकीन ज़्यादा करता है कि साढे सात सौ बरस बाद अल तसाल कि नेअमत मिल रही है। वह अपने मालिक थे तलाफ़ि कर लि, संभाला लेकिन कातिब को पहचानना वाज़िब है फ़िर अमल किया जाए। मेरा खमबात का कसद भी इस अमल का ज़ज़ा है लज़लक आप भी इस अमर की तहकीक हसबे ताकत ज़रुर करिये।
यहां से आज लुकमान और चान्दा भाई सिपाही को रुख्सत किया कि वह पहले खमबात जाए वहां चार पाँच दिन रहें खत लिखने वाले कि तलाश करे क्योंकि लुकमान उनको पहचानता है। अगर ज़फ़रयाबि मिली तो अलहम्दोलिल्लाह उसी रोज़ मम्लूक (नज़्मुद्दीन) पर खमबात के आमिल तीन चार दिन कि मिआद से खिपया कि जोडि फ़ौरन अन्दूर भेजे बहरहाल तहकीक के बाद इंशाल्लाह खमबात कसद करूंगा। आमिल को लिख चुका हूं अगर कोई पता न लगे तो दोनो सूरत हाज़िर होंगे वहां लुकमान से खिदमत लिजिए अगर जब उम्मीद कोई पते लगे तो फ़ोरन आप भी मम्लूक को मलूम किजिए आप के खत के पहुँचते हि फ़ोरन चलुँगा इंशाल्लाह तआला।
इस के साथ आप कि राय मुनीर में यह हो कि मम्लूक खुद तहकीक के लिए खमबात जाए ताकि हम पर कोई इल्ज़ाम न रहे और कोई यह न कहे सके कि हमने आखिरत को छोड कर दुनिया को इख्तियार कि अगरचे यह सफ़र भी तो दावत हादिया कि खिदमतों मे से है तो फ़ोरन इसी कासिद के साथ या और किसी के साथ ज़वाब लिखें। मम्लूक इसी वज़ह से नज़र हक़िमी कि अदाई के लिए बुरहानपुर भी नहीं गए वह इस लिए कि अगर खमबात आने कि राए मिली सबील अल इम्तिहान मुकर्रर हो तो ज़ियारत का बहाना बाकि रहे। अब जो भी आप के ख्याल मे आए मुझे फ़ोरन लिखिए। अल्लाह खैर कि तौफ़ीक दे।
ऐ अल्लाह तेरे माह मुबारक कि हुर्मत से और आज ईदुल फ़ित्र कि हुर्मत से तू हमको तेरी मरज़ी के मुताबिक तौफ़ीक अता कर। हम तेरे बन्दे हैं और तेरे इबादे मुस्तफ़ेन कि गुलामी में तेरे अमर कि तबाअत करने वाले हैं, बिदअत वाले नहीं...
यह खत मैंने लिखा ताकि आपको इतमिनान मिले वअस्सलाम सुबह ईद उल फ़ित्र इस कि तहरीर हुई। मैं दर्द ओ गम के दरिया के मौजों मुन्ज़्द हार में फ़ंसा हुआ हूँ। आप के जवाब का मुन्तज़िर हूँ जिस तरह खुशक साली में बारिश का इंतिज़ार होता है। (इंतिहाई) यह है नज़्मुद्दीन का कौल इस खत में जो साहिबे तौफ़ीक के लिए वाजे है।
बिल्कुल इसी किस्म के और भी खतूत इस किताब में हैं जिस में इसी तरह तशवीशात परेशानियाँ, घबराहट, क्या करना, क्या नहीं करना, कहां जाना, कहां नहीं जाना, कहां ठहरना और अपने किए पर नदामत करना वगैरह से यह खतूत भरपूर हैं। इन खतूत मे से चुनिन्दाह ज़ुमले यहां लिखे जाते हैं)^१
^१: अगर नज़्मुद्दीन अपने फ़आल (कयाम) में यकीन पर होता तो धमकी वाले इमामी खतूत आने पर कभी परेशान न होते, परेशान भी तो हद से ज़्यादा जैसा कि उन के खतूत से वाज़े है।
एक खत में नज्मुद्दीन साहब लिखते हैं कि "अगर मैं खमबात जाऊं और वहां अपना मकसद पूरा हो जाए और मालिकुल उमूर (इमामी खत लिखने वाले) हुकम करे कि सूरत जाऊं तो हुक्म कि तामील करूंगा और अगर यह हुक्म करें कि माजून साहब के पास जाओ तो आँखों के बल जाऊँगा और यह तो अपनी सआदत की बात है।"
इस किस्म कि पसोपेश कि बातें लिख कर लिखतें है कि, "मैं तंदरुस्त कि सूरत में बीमार हूँ। बबूल के अँगारों पे लौट रहा हूँ। मेरा दिन बद्दल वाला और रात घट काली। कुछ भी नहीं सूझता कोई रास्ता नहीं मिलता मेरी बिमारी लाईलाज़ है। लेकिन मेरे हुदात शिफ़ा मौहम्मद अली फ़ातिमा हसन हुसैन और उनके इतरत ताहिरत अलयहिस्सलाम हैं...... मैंने यह खत लिखा तो है मगर मैं नहीं जानता कि सही लिखा है या गलत, सबब कि मैं ऐसी परेशानकुन हालत में हूँ कि जिससे छुटकारा य तो मौत से हो सकता है य महज़ूब बात के कशफ़ से। शहरूल्लाह अल मुअज्जम।
एक खत में इंतिहाई तशवीश के बाद लिखते हैं कि "इमामी खत कि चर्चा आम हो गई है। लोगों में इंतिशार हो रहा है। अगर कोई अमर मुतबय्यीन हुआ तो फ़िर क्या हाल? किस्म किस्म के खयालात पैदा हो रहे हैं। दिल को किसी तरह इतमिनान नहीं है, न सफ़र में लज़्ज़त, न इकामत मे लुत्फ़..... आदा-ए-दीन तो चाहे इस तरह कहते हैं साबिक तस्व्वुर के मुताबिक दिल पर हमेशा यही बात तालअ रहती है कि काश कि उस वक्त माज़ून से तआल्लुक करते ताकी वली अल असर बफ़ज़ल अली मन यशा करते और अपन इस मिसल कि धमकी से अमान में रहते मअज़लक़ लाख लाख शुक्र अगर सही है क्योंकि धनी का कोई धनी नहीं वह चाहे सो करे अदना गुलाम के हाथ यह अज़र (चालू) किया है और खत मे कोई ऐब-ज़ोई नहीं है सिवाए खैर-ख्वाही और धमकी अगर हम खज़ु न करें तो। इद्दाअ (दावा किया) का लफ़्ज़ भी नहीं है बलकी दऊत (दआवत कि) लिखा है भी यही बात कि हम मुद्दई बन कर कायम नहीं हुए इसी तरह दिल पर खतरात गुजर रहे हैं कि जो कुछ आए कोई हरज़ नहीं बकौल खुदा "जो लोग हमारी राह में कोशिश करते हैं हम उनको हमारी सिधी राहें बताते हैं। खत बहुत ज़ल्दी में लिखा हूँ आप भी फ़ौरन जवाब लिखते रहें".... सुबह जुमाअ २६ शहरुल्लाह अल मुअज़्ज़म। [^1]
[^1] - नज्मुद्दीन के इन खतूत कि सही सबूत के लिए काफ़ि है यह कि इस किताब के ज़वाब लिखने वाले शेख ने इन खतूत को नज्मुद्दीन के खतूत बताया है।
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...........................................................इन खतुते नज़मी पर मुसन्निफ़ अल किताब का तसरह........................................................
(1) नज़्मुद्दीन ने खुद अपने नफ़स पर इकरार किया है अपने खतूत में कि माज़ून साहब से तआल्लुक करना चाहिए। बिलकुल सच कहा लेकिन उन्होंने रियासत कि ख्वाहिश कि खातिर इस पर फ़ौरन अमल नहीं किया [^२] और अपने ऊपर गैर को मुतह्क्किम नहीं होने दिया और खुद अकेले रियासत पर काबिज़ रहे मतसल्ल्त रहे।
(2) नज़मुद्दीन ने अपने खतूत में यह असबात किया है कि "नस्से ज़ली नहीं हुई" यह बात भी इनकी सच है। अब रहा उन का यह दावा कि उन पर फ़ज़ल (नस) के इशारात खज़यि हुए तो यह तो अव्वल के दावों के मानिंद है कि नबी (स) साहब ने उन को नमाज़ मुक्द्दम किया, गार में साथ रखा, उनके लिए रिदा बिछाई, वगैरह खुराफ़ात कि जिस को उनकी इत्तिबा ने उन कि खिलाफ़त के सबूत में हुज़्ज़त बना ली और अमीर-अल-मुमिनीन अली (अ) पर इन को मुकद्दम किया! मौलाना अब्दे अली सैफ़ुद्दीन ने मौलाना एज़ुद्दीन को अपने खानदान को छोड कर काईम किया नस ज़ली से, इशारात से नहीं। यह बात मोहकम है कि नस ज़ली बगैर इशारात बेकार है। इशारात के साथ नस ज़ली का होना ज़रूरी है। फ़क्त इशारात पर इत्तिमाद करने वाला दज़्ज़ाल आअर एक आँख वाला दज़्ज़ाल है। नस खफ़ी नस ज़ली का ताबअ है। ज़ली खफ़ी का ताबअ नहीं। ज़ली और खफ़ी दोनों लाज़िम मल्ज़ूम है।
[^2] - अब्दे अली इमादुद्दीन कि वफ़ात के बाद अब्दुल अली वली कि ताकीद से माज़ून साहब से इज़ाज़त ली खज़ू किया मगर अफ़सोस कि बाद मे मुकर गए।.
(3) नज़मुद्दीन का दावा कि दो (२) अज़र में से एक तो हम को ज़रूर मिलेगा दुआत कि खिदमत करने में, यह तो उस चोर कि मानिंद है कि बैतुल-माल से एक डारम (अनार) कि चोरी कि और उस डारम को मिस्कीन को दे कर सदकात करने का अज़र हासिल करने कि तमन्ना कि। चोरी और गरीबों पे शफ़्फ़क्कत!? और अज़र!? किस ने नज़मुद्दीन पर यह बोझ डाला कि जिस बोझ को उठा कर वह ज़हन्न्म का मुस्तहिक हुवा!!?
अगर कोई कहे कि उन्होंने दावत कि हिफ़ाज़त कि खातिर बहुत हि मेहनत मशक्कत उठाई तो उसका जवाब यह है कि "हरगिज़ नहीं, झूठ है यह। अलबत्ता दुनियादारी रियासत नज़ासतकि चाहत कि बाइस उन्होंने किया जो कुछ किया! अगर कोई एतराज़ करके कहे कि "अगर नज़मुद्दीन साहब निज़ाम-दवात कि हिफ़ाज़त न करते तो मुमिनीन का ज़त्था बिखर जाता, तितर-बितर हो जाते। ज़वाब कि दुवाते हादिया का एक रब मालिक है जो उसका मुहामी है अगर वह उसकी हिमायत (हिफ़ाज़त) न करे तो फ़िर कौन उसकी हिमायत (हिफ़ाज़त) करेगा हाशालिल्लाह ऐसा नहीं हो सकता अलबत्ता अगर फ़ासिद खमाइर वाले यह समझते हैं कि हम उनके मुहाफ़िज़ हैं तो उसकी मिसाल चमगाडर कि है कि अपने पैर से दरखत कि डाली पर लटकता है और समझता है कि इन आसमानों को मैंने अपने पैरों से रोक रखा है अगर मैं ऐसा न करूं तो आसमान अभी नीचे गिर पडे। इसी तरह कुत्ता घडी के नीचे चलता है और यह समझता है कि मैं हि इस बोझ भरी घडी को चला रहा हूँ। इसी तरह इस नाज़िम नज़मुद्दीन का ख्याल है कि मैं हि दावते-हादिया का हाफ़िज़ हूँ, मैं इमामुज़्ज़मान कि तरफ़ से मुलहम हूँ, मैं हि दावत को सभांल रहा हूँ जैसा कि एक मच्छर ने खज़ूरी को कहा कि तू साबित रहना मैं तेरे ऊपर आ के बैठ रहा हूँ मेरे वज़न से गिरना मत। खज़ूरी ने कहा कि तू मुझ पर आ के बैठे तो मुझे तो उसका शऊर (एहसास)भी नहीं होता तो भला मैं तेरे वज़न से कैसे घिर पडूं। (यह है नज़मुद्दीन के बहाने)।
मौलाना अब्दुल मुतलिब अलयहिस्सलाम ने हाथी वाले अब्रहि को कहा कि मेरा माल (ऊँट) मुझे दे दे।मुझे काबातुल्लाह कि फ़िक्र नहीं है, काबा का मालिक अल्लाह है, अल्लाह खुद अपने घर कि हिफ़ाज़त करेगा। फ़िर अल्लाह सुबहानहू ने अबाबील के ज़रिए अपने घर कि हिफ़ाज़त कि।
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.................................................................***** तीन फ़िरके *****.................................................................
Re: दुआत और उनके हुदुद के सीरत की सैर करने वालों के बागीचे
I know this is interesting. My gujrati is rusted. can some one please translate. Thanks
Re: दुआत और उनके हुदुद के सीरत की सैर करने वालों के बागीचे
मनाहिल 5
नजमुद्दीन के इस इद्दआ के बाद इब्नाउद्-दावत मे तीन फ़िरके हो गए।
पहला तो वह कि जो नस-खफ़ी और इशारा पर एतमाद कर के इन को मानने लगे यह लोग गुणहगार हैं, न तो उलमा कि तरह है न जुहाल।
दूसरा फ़िरका वह जो इन्कताअ का काइल हुआ। यह बुलन्द मकाम उलमा-ए-अबरार का तबका है।
तीसरा फ़रीक जिम्मे गफ़ीर जुहाल (जाहिल) कि भेड जो इनको बकायदा मनसूस अलैय मानते हैं।
नजमुद्दीन शुरू शुरू मे एहतियात करते थे, अपने को उलमा के मुनतखिब शदह नाज़िम मानते थे फ़िर जब इनको हर तरह से तमक्कुन हो गया तो अपने को मनसूस अलैह बकायदा दाई मुतलक मनाने लगे और बहुत हि तगय्यिर तबदील ऊँच नीच और अपनी मन मानी करने लगे। जब अंदूर से सूरत लौटे और शेख अब्दुल्लाह भाई अब्दे अली इमादुद्दीन साहब से मिले अवल्लन इन दोनों में इखतलाफ़ात थे अब दोनों मुत्तहिद हो गए।
नजमुद्दीन के इस इद्दआ के बाद इब्नाउद्-दावत मे तीन फ़िरके हो गए।
पहला तो वह कि जो नस-खफ़ी और इशारा पर एतमाद कर के इन को मानने लगे यह लोग गुणहगार हैं, न तो उलमा कि तरह है न जुहाल।
दूसरा फ़िरका वह जो इन्कताअ का काइल हुआ। यह बुलन्द मकाम उलमा-ए-अबरार का तबका है।
तीसरा फ़रीक जिम्मे गफ़ीर जुहाल (जाहिल) कि भेड जो इनको बकायदा मनसूस अलैय मानते हैं।
नजमुद्दीन शुरू शुरू मे एहतियात करते थे, अपने को उलमा के मुनतखिब शदह नाज़िम मानते थे फ़िर जब इनको हर तरह से तमक्कुन हो गया तो अपने को मनसूस अलैह बकायदा दाई मुतलक मनाने लगे और बहुत हि तगय्यिर तबदील ऊँच नीच और अपनी मन मानी करने लगे। जब अंदूर से सूरत लौटे और शेख अब्दुल्लाह भाई अब्दे अली इमादुद्दीन साहब से मिले अवल्लन इन दोनों में इखतलाफ़ात थे अब दोनों मुत्तहिद हो गए।